आजादी के परवाने : जानिए कौन थे ब्रिटिश साम्राज्य की जड़ें हिला देने वाले जोरावर सिंह बारहठ

आजादी के परवाने : इस साल देश आजादी का अमृत महोत्सव ( Azadi ka Amrit Mahotsav ) मना रहा है। सारे देशवासी इस बार 75वां…

jorawar 2 | Sach Bedhadak

आजादी के परवाने : इस साल देश आजादी का अमृत महोत्सव ( Azadi ka Amrit Mahotsav ) मना रहा है। सारे देशवासी इस बार 75वां स्वतंत्रता दिवस ( 75th Independence Day ) मनाएंगे। इस दिन हम अपने देश के आजादी के परवानों को याद करते हैं उन्हें श्रद्धांजलि देते हैं। देश की आजादी की लड़ाई में हजारों क्रांतिकारियों ने अपना बलिदान दिया। इनमें कई देशभक्त वीरों की भूमि राजस्थान से थे। उनमें से कुछ ऐसे क्रांतिकारी जिनका नाम इतिहास के पन्नों कहीं गुम हो गय़ा है। हम आपको ऐसे ही आजादी के परवानों से रूबरू कराएंगे ताकि देश के लिए उनके दिए गए सर्वोच्च बलिदान को हम याद रखें।

भीलवाड़ा के रहने वाले थे जोरावर बारहठ

ऐसे ही आजादी के परवानों में शामिल हैं राजस्थान के जोरावर सिंह बारहठ ( Jorawar Singh Barhath )। जोरावर सिंह बारहठ का जन्म 12सितंबर 1883 को उदयपुर में हुआ था। उनके पूर्वज भीलवाड़ा ( Bhilwara ) और शाहपुरा ( Shahpura) तहसील के गांव के रहने वाले थे। जोरावर बचपन से ही देश के प्रति जुनूनी थे। उनके बड़े भाई केसरी सिंह बारहठ ( Kesari Singh Barhath ) और प्रताप सिंह बारहठ ( Pratap Singh Barhath ) भी बड़े क्रांतिकारी थे। बड़े भाई के सान्निध्य में रहकर जोरावर में भी देश के लिए कुछ कर गुजरने का जज्बात पनपने लगे। जोरावर उस वक्त कोटा रियासत के ठिकाने अतरलिया के चारण ठाकुर तख्त सिंह की बेटी अनोप कंवर से वैवाहिक बंधन में बंधे। लेकिन वे ठहरे देश के प्रेम में रमे क्रांतिकारी वैवाहिक जीवन उन्हें रास नहीं आया तो राजसी वैभव और गृहस्थी छोड़कर स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रूप से कूद पड़े।

हॉर्डिंग्स बम कांड की मिली जिम्मेदारी

वे कुछ महीनों बाद जोधपुर चले गए, यहां उनकी मुलाकात प्रसिद्ध क्रांतिकारी भाई बालमुकुन्द ( Bhai Balmukund ) से हुई। उन्हें दिल्ली षड्यंत्र के मामले में फांसी की सजा हुई थी। देश की आजादी की लड़ाई के लिए क्रांतिकारी तो खुद आगे आ रहे थे। लेकिन सबसे बड़ी कमी धन को लेकर थी। इसलिए जोरावर ने बिहार ( Bihar ) के आरा के एक निमाज के महंत की हत्या कर दी थी और धन लूट लिया था। उस समय भारत का ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड हॉर्डिंग दिल्ली आय़ा हुआ था। क्रांतिकारी भाई बालमुकुंद ने डॉर्डिंग को जान से मारने की योजना बनाई थी. उन्होंने इस कार्य के लिए बारहठ भाईयों जोरावर और प्रताप सिहं बारहठ को हॉर्डिंग्स पर बम फेंकने की जिम्मेदारी दी।

वायसराय के ऊपर जानलेवा हमले से ब्रिटिश सरकार के फूले हाथ-पांव

23 दिसंबर 1912 को वायसराय लॉर्ड हॉर्डिंग्स का जुलूस दिल्ली ( New Delhi ) के चांदनी चौक ( Chandni Chowk ) से गुजरा। बड़े लाव-लश्कर के साथ लॉर्ड हॉर्डिंग्स हाथी पर सवार होकर गुजर रहा था। तभी चांदनी चौक स्थित पंजाब नेशनल बैंक की बिल्डिंग पर बारहठ बंधु और बसंत कुमार विश्वास ( Basant Kumar Vishwas ) चढ़ गए। जैसे ही हॉर्डिंग्स बिल्डिंग के नीचे से गुजरा वैसे ही जोरावर ने उस पर बम फेंक दिया। लेकिन बम पास खड़ी महिला के हाथ से टकरा गया और निशाना चूक गया। जिससे हॉर्डिंग्स बच गया। इसमें हॉर्डिंग्स के छत्ररक्षक महावीर सिंह मारा गया।

ताउम्र में राजस्थान-एमपी के जंगलों में भटके

इस घटना में हॉर्डिंग्स तो बच गया, लेकिन भारत के वायसराय के ऊपर जानलेवा हमला होने से ब्रिटिश सरकार की ज़डें हिल गई थीं। सरकार में कोहराम मच गया। अंग्रेज शासन-प्रशासन के हाथ-पांव फूल गए थे। जोरावर और प्रताप सिंह बारहठ वहां से निकलकर कोटा और बूंदी के बीहड़ों में छुप गए थे। लेकिन किसी तरह अंग्रेज सैनिकों ने प्रताप सिंह जोरावर को पकड़ लिया, लेकिन जोरावर भागने में कामयाब रहे। इसके बाद वे मध्य प्रदेश के मंदसौर में नाम बदलकर रहने लगे थे। जोरावर का नाम साधु अमरदास बैरागी हो गया था। वे जंगलों-बीहड़ों में ताउम्र भटकते रहे।

इतिहास के पन्नों में ऐसी जानकारी मिलती है कि एक बार अंग्रेज सरकार को जोरावर के आस-पास होने की भनक लगी। तो उन्होंने सीतामऊ के राजा को आदेश भेजा कि वे जोरावर को पकड़ कर उन्हें सौंप दें। लेकिन सीतामऊ के राजा ने ऐसा नहीं किया। वे नहीं चाहते थे कि जोरावर जैसा देशभक्त उन निर्दयी अंग्रेजों के हाथों में सौंपा जाए। इस तरह जोरावर अंग्रेजों की पहुंच में नहीं आ सके। ऐसा कहा जाता है कि वे जब तक जिंदा रहे अंग्रेज सरकार उन्हें पकड़ नहीं सकी। लेकिन कई सालों तक इसी तरह राजस्थान और मध्य प्रदेश के जंगलों में भटकते-भटकते उन्हें कई बीमारियों ने जकड़ लिया था। आखिरकार मात्र 36 साल की उम्र में 17 अक्टूबर 1939 में उनकी मृत्यु हो गई। मध्य प्रदेश के एकलगढ़ में उनका स्मारक भी बना हुआ है।

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