जोधपुर में पहला ऐसा मंदिर जहां मां की प्रतिमा के बिना होती है पूजा, जानें इसका रहस्य

Shardiya Navratri 2023: जोधपुर के इस मंदिर में होती मां की प्रतिमा के बिना पूजा। राजस्थान में यह ऐसा पहला मंदिर हैं जहां मां के प्रतीक की पूजा की जाती है।

Barwasan Mata Temple Jodhpur | Sach Bedhadak

Shardiya Navratri 2023: नवरात्रि में दुर्गा मां की नौ अलग-अलग स्वरूपों में पूजा-अराधना की जाती है। राजस्थान में जगह-जगह माता के मंदिर बने हैं। लेकिन जोधपुर में एक ऐसा मंदिर भी जहां देवी की मूर्ति की बजाय उनकी पोशाक की पूजा की जाती है। यानी इस मंदिर में मां की कोई मूर्ति नहीं है। इसे खुंटिया चीर दर्शन कहा जाता है। इस मंदिर में तीन लोहे की कील पर माता की प्रतिक चीर (ओढ़नी) ओढ़ाई जाती है। इसे ही माता का स्वरूप मानकर यहां रहने वाले लोग पूजा करते हैं। लगभग 500 वर्षों से यहां इसी प्रकार से पूजा की जा रही है।

ये माता कायस्थ माथुर समाज में भिंवानियों की कुलदेवी हैं। इस माता के मंदिर को पोल के नाम से जाना जाता है। यहां कोई पुजारी नहीं है। वर्तमान में पोल में 4 परिवार के लोग रहते हैं। यही मिलकर पूजा करते हैं। मंदिर में भेरू और भगवान गणेश का स्वरूप भी स्थापित है। यहां महिलाएं रात में भजन-कीर्तन करती हैं। यहां पर नवरात्रि में 9 दिन तक हवन चलता है। अखंड ज्योति भी रखी जाती है। ज्वारे भी उगाए जाते हैं।

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ज्वारे उगाकर की जाती है कामना

नवरात्रि में यहां ज्वारे उगाकर पता लगाया जाता है कि आने वाला साल कैसा रहेगा। यहां पर क्चारियों में ज्वारा उगाया जाता है और पहली क्यारी के ज्वारे को देखकर लोग पता लगाते हैं कि ये साल कैसा रहेगा। दूसरे क्यारी में उगने वाले ज्वारे से पता लगाया जाता है कि शहर के लिए यह साल कैसा रहेगा। इस मंदिर का स्थापना दिवस ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष 6 को मंदिर का स्थापना दिवस मनाया जाता है। उस समय आकर्षक श्रृंगार किया जाता है।

मंदिर का रहस्य

डॉक्टर कृष्ण मुरारी माथुर के अनुसार, सम्राट नसीरुद्दीन तुगलक के समय मुस्लिम धर्म अपनाने को लेकर फरमान जारी किया गया था। उस हमारे पूर्वज भिंवाजी ने ये स्वीकार नहीं किया था। वो देवी के उपासक थे। उन्होंने माता से प्रार्थना की अब हमें दिल्ली छोड़नी पड़ेगी। इसलिए आप हमारे साथ चलकर हमारी रक्षा कीजिए। उनकी प्रार्थना पर भिंवाजी को माता ने श्रीयंत्र दिया और उनके साथ इस शर्त पर चलने के लिए तेयार हो गईं कि वह छबड़े में विराजमान है और वह कहीं हाथ से उतार कर पृथ्वी पर नहीं रखेंगे। यदि किसी कारणवश वे छाबड़ा को कहीं भी धरती पर उतार रख देते हैं तो वह वही छबड़े से निकलर अपना स्थाई निवास बना लेंगी और उससे आगे नहीं चलेगी। माता की शर्त स्वीकार कर भींवाजी अपने गुरु के साथ राजस्थान को रवाना हुए।

वह जब टोंक जिले के सोनवाय गांव के पास आए तो एक वट वृक्ष के नीचे विश्राम करने के लिए रुक गए। सुवाजी छबड़े को अपने शिष्य भींवाजी को देखकर अपना नित्य कर्म करने चले गए। सुवाजी को आने में देर हो गई, इधर भिंवाजी को लघुशंका सताने लगी। लाचार होकर वो छबड़े को कुएं में उगे बड़ की जड़ में रख लघु शंका के लिए चले गए। धरती पर रखते ही श्रीयंत्र जो देवी बाला त्रिपुर सुंदरी का स्वरूप था वो छबड़े से निकल कर वट वृष पर विराजमान हो गईं। सुवाजी यह जानकर बड़े दुखी हुए उन्होंने मन में क्षमा मांगी, लेकिन भगवती अपने निश्चय पर अटल रही। उनकी विनती पर माता ने भिंवाजी को अपना प्रतीक चीर (ओढ़नी) व चरण (घाघरा) देकर कहा कि तुम मेरे प्रतीक की पूजा करना। जहां कहीं भी इसे रखोगे वहां मेरा मंदिर हो जाएगा।

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माता की बात मानकर उनके पूर्वज पहले नागौर फिर मेड़ता होते हुए जोधपुर आए। यहां पर तीन खूंटियों पर इस तरह से पेरावान होती है जिससे वो देवी का स्वरूप लगे। इस मंदिर का निर्माण संवत 1583 में करवाया गया। यहां आज भी माथुर समाज के बीच गोत्र के लोग दर्शन के लिए आते हैं। ये जोधपुर का ऐसा पहला मंदिर है जहां माता की बिना प्रतिमा की पूजा की जाती है।

टोंक में भी बनाया गया मंदिर

भिंवाजी ने टोंक जिले के सोनवाया में भी माता का मंदिर बनवाया। यहां पर माता वृक्ष में विराजित होने की वजह से उसका नाम वटवासन माता, बड़माता, वरहुल, सोनवाय राय आदि नामों से जानी जाती हैं। टोंक में जिस पेड़ की जड़ में श्रीयंत्र को रखा गया। उस कुएं के आले में बड़ा का वृक्ष होने की वजह से माता का नाम बड़वासन पड़ा। ये टोंक से 10 किलोमीटर दूर है।