कौन थी अमृता देवी? जिन्होंने पेड़ों के बचाने के लिए कटवा दिया था सिर, अब उनके नाम पर होगा राज्य जीव जन्तु कल्याण बोर्ड का नाम

मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने राज्य जीव-जन्तु कल्याण बोर्ड का नाम अमृता देवी के नाम से करने की घोषणा की।

Amrita Devi Bishnoi

Amrita Devi Bishnoi : जयपुर। प्रदेश की गहलोत सरकार वन एवं वन्यजीव संरक्षण को लेकर लगातार सराहनीय फैसले लेने में जुटी हुई है। इसी कड़ी में अब मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने राज्य जीव-जन्तु कल्याण बोर्ड का नाम अमृता देवी के नाम से करने की घोषणा की। राज्य वन्यजीव मंडल की 14वीं बैठक में सीएम गहलोत ने कहा कि अमृता देवी का बलिदान सभी को पर्यावरण संरक्षण की प्रेरणा देता है। लेकिन, क्या आपको पता है कि अमृता देवी कौन थी और उन्होंने ऐसा क्या किया, जिसके लिए उन्हें आज भी याद किया जाता है?

कौन थी अमृता देवी?

राजस्थान के जोधपुर जिले से 26 किमी दूर खेजड़ली गांव है। जहां पर साल 1730 में अमृता देवी बिश्नोई अपने परिवार के साथ रहती थी। इनके पति का नाम रामो जी खोड था। उनके तीन बेटियां थी, जिनका नाम आसू , रत्नी और भागू था। अमृता देवी बिश्नोई पर्यावरण प्रेमी थी। यही वजह दी थी कि पेड़ों को बचाने के लिए अमृता देवी ने अपने प्राण त्याग दिए।

सबसे पहले अमृता ने किया पेड़ों की कटाई का विरोध

साल 1730 में राजस्थान के मारवाड़ में राणा अभयसिंह का राज था। वो अपने मेहरान गढ़ किले में फुल महल नाम से एक महल बनवा रहे थे। ऐसे में चुना पकाने के लिए उनको लकड़ियों की जरूरत पड़ी। राजा ने अपने मंत्री गिरधारी दास भंडारी को लकड़ी की व्यवस्था के आदेश दिए। जिस पर मंत्री गिरधारी दास किले से 24 किमी दूर स्थित खेजड़ली गांव पहुंचा। जहां राजा के सिपाहियों ने रामो जी खोड बिश्नोई के घर के पास का पेड़ काटने के लिए कुल्हाड़ी चलाई तो आवाज सुनकर रामो जी खोड की पत्नी अमृता बिश्नोई आई और विरोध किया।

खेजड़ी के लिए 363 लोग हुए शहीद

लेकिन, सैनिक नहीं माने तो अमृता देवी खेजड़ी के पेड़ से लिपट गई। राजा के कारिन्दों ने तलवार से उसे मार दिया। इसके बाद उसकी तीन पुत्रियों ने भी पेड़ को बचाने के लिए अपना बलिदान दे दिया। पेड़ बचाने के लिए अमृता देवी के शहीद होने का खबर आसपास के गांवों में फैली तो बड़ी संख्या में लोग एकत्र हो गए। आसपास के 60 गांवों के 217 परिवारों के 294 पुरुष व 65 महिलाएं विरोध करने गांव पहुंच गईं।

अब नहीं काटा जाता पेड़

ये सभी लोग पेड़ों को पकड़ कर खड़े हो गए। राजा के कारिन्दों ने बारी-बारी से सभी को मौत के घाट उतार दिया। एक साथ इतनी लोगों के मारे जाने की जानकारी महाराजा तक पहुंची तो उन्होंने तुरंत सभी को वापस लौटने का आदेश दिया। इसके बाद महाराजा ने लिखित में आदेश जारी किया कि मारवाड़ में कभी खेजड़ी के पेड़ को नहीं काटा जाएगा। इस आदेश की आज तक पालना हो रही है।

12 सितम्बर को मनाया जाता है खेजड़ली दिवस

इस घटना के बाद खेजड़ली और इसके आसपास के गांवों में बिश्नोई लोगों की प्रधानता के कारण यहां वृक्ष कटाई और शिकार पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया गया है। जिसकी अब तक पालना हो रही है। 12 सितम्बर 1978 से खेजड़ली दिवस मनाया जा रहा हैं। साल 1983 में राजस्थान सरकार ने खेजड़ी के वृक्ष को राजवृक्ष घोषित कर दिया। खेजड़ी पेड़ों को बचाने के लिए हुए इस आंदोलन को पहला ‘चिपको आंदोलन’ माना जाता है। खेजड़ली में विश्व का एकमात्र वृक्ष मेला लगता है। खेजड़ली स्थान बिश्नोई समाज का पवित्र स्थल है। यहां भादवा सुदी दशम को बलिदान दिवस के रुप में खेजड़ली गांव में मेला लगता है। यहां इन शहीदों का एक स्मारक व वन क्षेत्र विकसित किया हुआ है। इस मेले में हजारों श्रद्धालु पहुंचते हैं और बलिदानियों को नमन करते हैं।

अमृता देवी विश्नोई स्मृति पुरस्कार

राजस्थान और मध्य प्रदेश सरकार के वन विभाग ने जंगली जानवरों के संरक्षण और संरक्षण में योगदान के लिए प्रतिष्ठित राज्य स्तरीय अमृता देवी विश्नोई स्मृति पुरस्कार शुरू किया है। पुरस्कार में नकद 25000 रुपये और प्रशस्ति शामिल है। बाद में 2013 में, पर्यावरण और वन मंत्रालय ने अमृता देवी बिश्नोई राष्ट्रीय पुरस्कार की शुरुआत की जो वन्यजीव संरक्षण में शामिल व्यक्तियों या संस्थानों को दिया जाता है।

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